आचार्यश्री महाप्रज्ञ नहीं रहे। आज शाम को ऑफिस आते ही सबसे यही सूचना मिली। ...तो एकदम से वह सहज, धीर-गंभीर चेहरा आँखों के सामने घूम गया। मुझे आचार्यश्री से मिलने, उनसे बाते करने और कुछ प्रश्न पूछने का सौभाग्य मिल चुका है। यह वर्ष २००५ की बात है। तब आचार्यश्री चातुर्मास के लिए जयपुर आये थे। मालवीय नगर स्थित अणुविभा केंद्र में उन्होंने कुछ भाग्यशाली पत्रकारों को बुलाया था, उनमे मैं भी शामिल था। बातचीत बिलकुल अनौपचारिक थी। करीब एक घंटे की बातचीत में उन्होंने कही से यह अहसास नहीं होने दिया की हम जिस व्यक्ति से मुखातिब हैं, वे राष्ट्रसंत आचार्य महाप्रज्ञ हैं। जैसे घर का कोई बुजुर्ग स्नेह से बच्चो को कुछ अपने अनुभव की बाते बताता है, ठीक वैसे ही उन्होंने भी बातो-बातो में ही हमें समाज, प्रदेश और देश के प्रति हमारी जिम्मेदारियों का भान कराया। आचार्यश्री की सबसे बड़ी चिंता यह थी की समय के साथ समाज अर्थ प्रधान होता जा रहा है। सामाजिक और मानवीय सम्बन्ध समाप्त होते जा रहे हैं। वे बढ़ते जातिवाद और सम्प्रदायवाद से भी चिंतित थे। पूरी मुलाक़ात के दौरान युवाचार्य श्री महाश्रमण भी उनके साथ थे। आचार्यश्री ने आशीर्वाद स्वरुप हम सभी को कुछ साहित्य दिया और फिर हमें विदा किया।
Sunday, May 9, 2010
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नमन...
ReplyDeleteword veryfication hatayen...
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