Monday, April 19, 2010
प्रेरणा पुंज
बचपन से किसी पर आलसी होने का ठप्पा लगा हो तो उसे मिटाना तो मुश्किल होता ही है कई बार ठप्पा धारक उसे अपना सुरक्षा कवच भी बना लेता है। कुछ ऐसा ही मैंने भी किया। ब्लॉग गुरु और छोटे भाई दुलाराम सहारण से बातो-बातो में ही ब्लॉग बनाने की बात चली, कई निर्देशों और संदेशो के बाद आखिर ब्लॉग बन ही गया। अब नया संकट यह खड़ा हो गया की इसमें लिखा क्या जाये और कैसे लिखा जाये? दुलाराम और भाई कुमार अजय की नित नई पोस्ट देखकर काफी अच्छा लगता। मैं उन्हें बधाई देता और वो मुझे ओलमा। कि आपके ब्लॉग का क्या हुआ? यह बड़ा ही यक्ष प्रश्न था लेकिन इसे कितने दिन तक टालता। आखिर आज भाई दुलाराम से जब चैटिंग चल रही थी तो फिर वाही सवाल खड़ा हो गया। वही दो आंक या कहे कि ढाक के तीन पात। फिर संकल्प लेना ही पड़ा। आज ही कुछ न कुछ लिखूंगा। या ऐसे कहे कि आज लिखना ही पड़ेगा। तो फिर अखबार का प्रथम संस्करण छोड़ने क बाद मैंने लिखना शुरू किया और नगर संस्करण के पहले इसे विराम दे रहा हूँ। देना ही पड़ेगा। लेकिन मुझे इतना समझ में आ गया कि कुछ लोग दुलाराम जैसे क्यों दूसरो से अलग होते हैं। कैसे वो किसी काम को अंजाम तक पहुंचा देते हैं। मेरे जैसे जन्मजात आलसी से ब्लॉग शुरू करवा देना उनके ही बूते की बात क्यों है। कैसे वो लोग चूरु जैसे थोड़े छोटे नगर में रहते हुए भी रास्ट्रीय स्तर के कामो को अंजाम दे पाते हैं। अब मेरी समझ में आ गया।
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यह आपका बड़प्पन है कि आप अपनी मेहनत और लग्न का श्रेय किस और को दे रहें हैं। भाई, लकड़ी ही नहीं होगी तो आग कहां से लगेगी ?
ReplyDeleteइसलिए पूरा श्रेय आपको। मिस्टर अरविंद चोटिया को।
शुभकामनाएं, मंगलकामनाएं।